Lekhika Ranchi

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आचार्य चतुसेन शास्त्री--वैशाली की नगरबधू-


145. अभिसार : वैशाली की नगरवधू

वैशाली के राजपथ जनशून्य थे। दो दण्ड रात जा चुकी थी । युद्ध के आतंक ने नगर के उल्लास को मूर्छित कर दिया था । कहीं - कहीं खड़े प्रहरी उस अंधकारपूर्ण रात्रि में भयानक भूत - से प्रतीत हो रहे थे। दो मनुष्य मूर्तियां अन्धकार को भेदन करतीं, हर्यों की छाया में वैशाली के गुप्त द्वार के निकट आ पहुंचीं। एक ने द्वार पर आघात किया । भीतर से प्रश्न हुआ - संकेत ?

मनुष्य - मूर्ति ने मृदुस्वर में कहा — अभिनय। हल्की चीत्कार करके द्वार खुल गया । दोनों मूर्तियां भीतर घुसकर राजपथ छोड़ अंधेरी गलियों में अट्टालिकाओं की परछाईं में छिपती -छिपती आगे बढ़ने लगीं । प्रत्येक मोड़ पर एक काली छाया आड़ से निकलकर आगे बढ़ती और दोनों मूर्तियां नि : शब्द उसका अनुसरण करतीं ।

सप्तभूमि प्रासाद के सिंहद्वार पर आकर दोनों मूर्तियां रुक गईं । संकेत के साथ ही द्वार खुल गया और आगन्तुकों को भीतर ले द्वार फिर उसी प्रकार बन्द हो गया ।

प्रासाद में सन्नाटा था । न रंग-बिरंगे प्रकाश, न फव्वारे, न दास - दासियों की , न दण्डधरों की भाग - दौड़ । दोनों व्यक्ति चुपचाप प्रतिहार के साथ पीछे- पीछे चले गए। सातवें अलिन्द को पार करने पर उन्होंने देखा एक और काली मूर्ति एक खम्भे के सहारे खड़ी है । उसने आगे बढ़कर कहा - “ इधर से भन्ते !

प्रतिहार वहीं रुक गया । नवीन मूर्ति स्त्री थी । वह सर्वाङ्ग काले कपड़े से आच्छादित थी । दोनों आगन्तुक कई प्रांगण , अलिन्द और कक्षों को पार करते हुए कुछ सीढ़ियां उतर , एक छोटे- से द्वार पर पहुंचे जो चांदी का था । इस पर अतिभव्य जाली का काम हो रहा था । उस जाली में से छन - छनकर रंगीन प्रकाश बाहर आ रहा था ।

द्वार खोलते ही दखा - एक बहुत विशाल कक्ष भिन्न- भिन्न प्रकार की सुख-सामग्रियों से परिपूर्ण था । यद्यपि यह उतना बड़ा न था जहां नागरिकजनों का सत्कार होता था , परन्तु उत्कर्ष की दृष्टि से इस कक्ष के सम्मुख उसकी गणना नहीं हो सकती थी । यह सम्पूर्ण भवन श्वेत और काले पत्थरों से बना था और सर्वत्र ही सुनहरी पच्चीकारी का काम हो रहा था । उसमें बड़े- बड़े स्फटिक के अष्टपहलू अमूल्य खम्भे लगे थे, जिनमें मनुष्य का हुबहू प्रतिबिंब सहस्रों की संख्या में दीखता था । विशाल भावपूर्ण चित्र भीतों पर अंकित थे। सहस्र दीप - गुच्छों में सुगन्धित तेल जल रहा था । धरती पर एक महामूल्यवान् रंगीन रत्नकम्बल बिछा था , जिस पर पैर पड़ते ही हाथ - भर धंस जाता था । ठीक बीचोंबीच एक विचित्र आकृति की सोलह पहलू ठोस सोने की चौकी पड़ी थी , जिस पर मोर पंख के खम्भों पर मोतियों की झालर लगा एक चंदोवा तना हुआ था तथा पीछे कौशेय के स्वर्णखचित पर्दे लटक रहे थे , जिनमें ताजे पुष्पों की कर्णिकाएं बड़ी ही कारीगरी से गूंथकर लगाई गई थीं । निकट ही एक छोटी - सी रत्नजटित तिपाई पर मद्यपात्र और पन्ने का एक बड़ा - सा पात्र धरा था ।

हठात् सामने का पर्दा हटा और उसमें से एक रूप - राशि प्रकट हुई , जिसके बिना यह अलिन्द सूना हो रहा था । उसे देखते ही दोनों आगन्तुकों में से एक तो धीरे - धीरे पीछे हटकर कक्ष से बाहर हो गया , दूसरा व्यक्ति स्तम्भित - सा वहीं खड़ा रह गया । अम्बपाली आगे बढ़ी । वह बहुत महीन श्वेत कापांस पहने थी । वह इतनी महीन थी कि उसके आर- पार साफ दीख पड़ता था । उसमें से छनकर उसके सुनहरे शरीर की रंगत अपूर्व छटा दिखा रही थी । पर यह रंग कमर तक ही था । यह चोली या कोई दूसरा वस्त्र नहीं पहने थी , इसलिए उसकी कमर के ऊपर के सब अंग -प्रत्यंग स्पष्ट दीख पड़ते थे।

न जाने विधाता ने उसे किस क्षण में गढ़ा था । कोई चित्रकार न तो उसका चित्र ही अंकित कर सकता था , न कोई मूर्तिकार वैसी मूर्ति ही बना सकता था ।

इस भुवन - मोहिनी की वह छटा आगन्तुक के हृदय को छेदकर पार हो गई । उसके घनश्याम - कुंचित कुन्तल केश उसके उज्ज्वल और स्निग्ध कन्धों पर लहरा रहे थे। स्फटिक के समान चिकने मस्तक पर मोतियों का गूंथा हुआ चन्द्रभूषण अपूर्व शोभा दिखा रहा था । उसकी काली और कंटीली आंखें , तोते के समान नुकीली नाक , बिम्बाफल जैसे दोनों ओष्ठ और अनारदाने के समान उज्ज्वल दांत , गौर और गोल चिबुक बिना ही श्रृंगार के अनुराग और आनन्द बिखेर रहे थे ।

मोती की कोर लगी हुई सुन्दर ओढ़नी पीछे की ओर लटक रही थी , और इसलिए उसका उन्मत्त कर देने वाला मुख स्पष्ट देखा जा सकता था । वह अपनी पतली कमर में एक ढीला - सा बहुमूल्य रंगीन शाल लपेटे हुए थी । उसकी हंस के समान उज्ज्वल गर्दन में अंगूर के बराबर मोतियों की माला लटक रही थी , तथा गोरी -गोरी कलाइयों में नीलम की पहुंची पड़ी हई थीं ।

उस मकड़ी के जाले के समान महीन उज्ज्वल परिधान के नीचे सुनहरे तारों की बुनावट का एक अद्भुत घाघरा था जो उस प्रकाश में शत- सहस्र बिजलियों की भांति चमक रहा था । पैरों में छोटी - छोटी लाल रंग की उपानतें थीं , जो सुनहरी फीते से कसी थीं ।

उस समय कक्ष में गुलाबी रंग का प्रकाश हो रहा था । उस प्रकाश में अम्बपाली का इस प्रकार मानो आवरण - भेदन कर इस रूप -रंग में प्रकट होना आगन्तुक व्यक्ति को मूर्तिमती मदिरा का अवतरण - सा प्रतीत हुआ । रूप - सौन्दर्य , सौरभ और आनन्द के अतिरेक से वह भाव -विमोहित - सा स्तब्ध -निस्पन्द खड़ा रहा।

अम्बपाली आगे बढ़ी; उसके पीछे सोलह दासियां एक ही रूप -रंग की , मानो उसी की प्रतिमाएं हों , अर्घ्य- पाद्य लिए आगे आईं ।

अम्बपाली ने आगन्तुक के निकट पहुंच , नीचे झुक , नतजानु हो आगन्तुक का अभिवादन किया , उसके चरणों में मस्तक झुकाया । दासियां भी पृथ्वी पर झुक गईं ।

आगन्तुक महाप्रतापी मगध - सम्राट् बिम्बसार थे। उन्होंने हाथ बढ़ाकर अम्बपाली को ऊपर उठाया । अम्बपाली ने कहा - “ देव , पीठ पर विराजें ! ”सम्राट ने ऊपर का परिच्छद उतार फेंका। वे रत्नपीठ पर विराजमान हुए ।

अम्बपाली ने नीचे धरती पर बैठकर सम्राट का अर्घ्य- पाद्य , गन्ध - पुष्प आदि से सत्कार किया ।फिर इसके बाद उसने अपनी मदभरी आंखें सम्राट पर डालकर कहा -“ देव , इतना दु: साहस ! इतना असाध्य- साधन! ”

“ प्रिये , स्थिर न रह सका। ”

“ मैं जानती थी देव ! ”

“ ओह, तो तुम बिम्बसार के मनोदौर्बल्य से अभिज्ञात हो ? ”

“ मैं प्रतीक्षा कर रही थी । ”

“ मैंने सोचा, अब नहीं तो फिर कभी नहीं, कौन जाने यह युद्ध का दानव बिम्बसार को भक्षण ही कर ले , मन की मन में ही रह जाए। ”

“ शान्तं पापम् ! ”

“ किन्तु प्रिये, तुम्हारा प्रबन्ध धन्य है। ”

“ देव , कोटि - कोटि प्राणों के मूल्य से अधिक मेरे लिए आपका जीवन- धन था । किन्तु शत्रुपुरी में आपका आना अच्छा नहीं हुआ । ”

“ वाह, कैसा आनन्दवर्धक है! प्रिये प्राणसखे आज ही , इस क्षण बिम्बसार के प्राणों में यौवन -दर्शन हुआ है। इस आनन्द के लिए तो कोई भी पुरुष सौ बार प्राण दे सकता है। ”

“ मैं कृतार्थ हुई देव ! ”इतना कह अम्बपाली ने सुवासित मद्य का पात्र भरकर सम्राट के आगे किया । सम्राट ने पात्र में अम्बपाली का हाथ पकड़ उसे खींचकर बगल में बैठा लिया और कहा - “ इसे मधुमय कर दो प्रिये ! ”और उन्होंने वह पात्र अम्बपाली के अछूते होंठों से लगा दिया । इसके बाद वे गटागट उसे पी गए।

संकेत पाते ही दासियों ने क्षण में गायन -वाद्य का आयोजन जुटा दिया । कक्ष सुवासित मदिरा की सुगन्ध और सुरंग में सुरभित - सुरंजित हो संगीत - लहरी में डूब गया और उस गम्भीर रात्रि में जब वैशाली में युद्ध की महती विभीषिका रक्त की नदी बहा रही थी , मगध के प्रतापी सम्राट् सुरा - सौन्दर्य के दांव पर शत्रुपुरी में अपने प्राण और अपने साम्राज्य को लगा रहे थे ।

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